1.
आइये इस वक़्त को परखें ज़रा.
सोच का ये कोष तो खरचें ज़रा.
हर तरह गंतव्य तक पहुंचे किरण
तिलिस्मी माहौल को खुरचें ज़रा.
दाँव-पेचों से बहुत विछुब्ध मन
गिरगिटों को जोर से बरजें ज़रा.
चापलूसों की कतारों से अलग
स्वयंभू वर्चस्व को परचें ज़रा.
अंततोगत्वा धरें कैसे धरम
ये फटे परिधान तो तुरपें ज़रा.
२.
नगर अपनी अस्मिता खोने लगे.
नागरिक खुद छल कपट होने लगे.
बन्धुचारा खा गया शहरीकरण
आचरण तक कैक्टस बोने लगे.
गंध आदमखोर सा पर्यावरण
फूल पत्ते कीट खग रोने लगे.
आदमी खुद खुदकुशी का हो सबब
आत्मा के यंत्रवत ढोने लगे.
गाँव को लौटें चलें अपने 'मिलन'
राजपथ करने महज टोने लगे.
डॉ. राजेंद्र मिलन
No comments:
Post a Comment